प्रदेश में दिग्विजय ने संभाली थी 69 सीटों की कमान, केवल सात जीते समीक्षा छह माह से चल रही थी तैयारी, अति आत्मविश्वास पड़ गया भारी

भोपाल। मध्य प्रदेश की सत्ता में 15 वर्ष बाद वर्ष 2018 में कांग्रेस की वापसी का बड़ा कारण पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के 'पंगत में संगत' कार्यक्रम को माना गया था। इसमें उन्होंने कार्यकर्ता ओं से सीधे बात दिग्विजय सिंह । की थी और उसका असर भी दिखा था। इस बार भी उन्होंने 69 सीटों की कमान संभाली। छह माह के भीतर एक-एक सीट का दौरा किया। कार्यकर्ताओं के साथ बैठक करके चुनाव की तैयारी की। आपसी मतभेद भुलाकर उनसे पार्टी के लिए काम में जुटने का संकल्प दिलाया पर यह सफल नहीं हुआ। पार्टी इन चिह्नित सीटों में से केवल सात (दतिया, बालाघाट, ग्वालियर ग्रामीण, बीना, सेमरिया, टिमरनी और मंदसौर) सीटें ही जीत पाई। अन्य ऐसी सीटें जहां पार्टी थोड़ी मेहनत से जीत सकती थी, उनकी ब ओर ध्यान ही नहीं दिया गया और

यही अति आत्मविश्वास कांग्रेस को भारी पड़ गया।

भाजपा की तरह कांग्रेस ने भी कठिन मानी जाने वाली सीटों को चिह्नित किया। इसमें वे सीटें शामिल की गई जिनमें लगातार तीन चुनाव से कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ रहा था। इन्हें जिताने की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह ने ली।' पूर्व सांसद रामेश्वर नीखरा के साथ उन्होंने सभी सीटों पर पहुंचकर बूथ, सेक्टर और मंडलम की बैठक की। नाराज कार्यकर्ताओं से अलग से संपर्क किया। कार्ययोजना यह थी

कि इन सीटों पर भाजपा की घेराबंदी की जाए पर ऐसा नहीं हुआ। न तो पार्टी की ओर से इन सीटों के प्रत्याशी पहले घोषित हों सके और न ही इन पर भाजपा प्रत्याशियों को घेर सके। यहां जीत मिलना तो दूर कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा के मुकाबले में टिक तक नहीं सके।

भाजपा की घेराबंदी आ गई कामः दरअसल, भाजपा ने इन सीटों पर तो कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की घेराबंदी उन्हीं के क्षेत्र में करने की कार्ययोजना पर काम किया। -इसका परिणाम भी सामने है। कांग्रेस के डा. गोविंद सिंह, हुकुम सिंह कराड़ा, जीतू पटवारी, तरुण भनोत, कमलेश्वर पटेल, सज्जन सिंह वर्मा सहित अन्य कई दिग्गज नेता चुनाव हार गए। ये सभी नेता पहले दिन से ही यह मानकर चल रहे थे कि अपना चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। यही अति आत्मविश्वास भारी पड़ गया। उधर, लगातार छह चुनाव से पिछोर विधानसभा सीट से जीत रहे केपी सिंह को शिवपुरी भेजा जाना भारी पड़ा। वे अपना चुनाव तो हारे ही पिछोर सीट भी हाथ से चली गई।


दिग्गज नेता भी अपने क्षेत्र में नहीं दिखा पाए कमाल

• विध्य अंचल में पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और कमलेश्वर पटेल को पार्टी ने आगे किया था। टिकट वितरण में भी कुछ परख हुई। इसके बावजूद दोनों कोई कमाल नहीं दिखा पाए। अजय सिंह अपना चुनाव तो जीत गए लेकिन कमलेश्वर पटेल स्वयं भी हार गए। यहां किसी समीकरण ने काम ही नहीं किया। यहां सीटें बढ़ने के स्थान पर एक कम और हो गई।

• इसी तरह डा. गोविंद सिंह को ग्वालियर अंचल में आगे किया गया था। उन्होंने अपने भांजे राहुल भदौरिया को मेहगांव से टिकट भी दिलाया पर न तो वे उसे जिता सके और न ही खुद ही जीत पाए । चुनाव में ऐसे फंसे की कहीं प्रचार करने भी नहीं निकले।

• चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया भी इसी तरह अपने बेटे डा. विक्रांत भूरिया के चुनाव में ही उलझ कर रह गए। जबकि, इन्हें मालवांचल की आदिवासी सीटों पर सक्रिय किया गया था। पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव निमाड़ की कुछ सीटों पर ही गए पर परिणाम अनुकूल नहीं रहे। खंडवा और बुरहानपुर में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। यही स्थिति खरगोन में भी रही। उनके भाई सचिन यादव जरूर कसरावद सीट से अपना चुनाव जीत गए।




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